A True Sakhi : जो सत्संगी भजन-सिमरन तो करते है लेकिन अंदर पर्दा नहीं खुला ! ये साखी जरूर सुने

 

गुरु प्यारी साध संगत जी आज की साखी है कि हम में से बहुत सत्संगी ऐसे हैं जो कि भजन बंदगी करने के बाद कुछ ऐसी गलतियां कर बैठते हैं जो कि उन्हें नहीं करनी चाहिए जिसके कारण उनकी बात नहीं बनती, अंदर पर्दा नहीं खुलता और वह वर्षों से भजन सिमरन करते आ रहे हैं और उन्हें बहुत वर्ष पहले नाम की बख्शीश भी हो चुकी है तो ऐसे अभ्यासियों की अक्सर शिकायत रहती है कि उन्हें अंदर कुछ दिखाई नहीं दिया और वह बहुत समय से अभ्यास करते आ रहे हैं तो साध संगत जी आइए बड़े ही प्यार से आज का यह प्रसंग सर्वन करते हैं ।

साध संगत जी यह बात एक सत्संगी की है जब वह एक सत्संग करता से अपने निजी अनुभव सांझा करता है कि मुझे बहुत वर्ष पहले नाम की बख्शीश हो चुकी है और मैंने अभ्यास को भी पूरा पूरा समय दिया है लेकिन फिर भी मुझे अंदर कुछ दिखाई नहीं दिया मेरा अंदर पर्दा नहीं खुला मेरी बात नहीं बनी तो कभी-कभी मैं बहुत परेशान हो जाता हूं कि इतने अभ्यास के बाद भी मेरी कोई बात नहीं बनी और मुझे अंदर ही अंदर ये होने लगता है कि परमात्मा है भी या नहीं ! तो उसकी यह बात सुनने के बाद वह सत्संग करता कहते हैं कि आप ऐसा क्यों सोचते हैं जबकि आप अपने गुरु का हुक्म निभा रहे है और मालिक के नाम को प्रकट करना इतना आसान नहीं है यह एक कठिन काम है इसलिए मालिक जिन पर कृपा करता है वही उससे जुड़ पाते हैं वही उसके नाम को प्रकट कर पाते है नहीं तो यह हर किसी के बस की बात नहीं है और आप कहते है की मालिक के नाम को प्रकट करना इतना भी आसान नहीं है जितना हम सोचते हैं तो हमें निरंतर प्रयास करते जाना है और अपने गुरु के हुकुम को निभाते जाना है और आप ऐसी बातें मन में क्यों लाते हैं कि मैं इतना अभ्यास करता हूं आप यहीं पर गलती कर रहे है इसीलिए आपकी बात नहीं बन पाती क्योंकि जब कोई सत्संगी भजन पर बैठता है तो भजन सिमरन करने के बाद उसके मन में यह बात कभी नहीं आनी चाहिए कि मैं भजन कर रहा हूं और मेरे कारण ही भजन सिमरन हो रहा है और जो भी हो रहा है मेरे कारण ही हो रहा है हमें ऐसा बिल्कुल भी नहीं सोचना है यह बात अपने अंदर से बिल्कुल ही निकाल देनी है कि मैं कुछ कर रहा हूं और भजन करने के बाद हमें केवल एक बात ध्यान रखनी है कि हमने जितना भी अभ्यास किया है उसको मालिक के चरणों में अर्पित कर देना है जैसे हम बीज को पृथ्वी को अर्पण कर देते हैं और फिर पृथ्वी उस बीज का पालन पोषण करती है और फिर उस से वृक्ष बनता है तो ऐसे ही हमें भी अपनी भजन बंदगी को मालिक के आगे अर्पण कर देना है और सब कुछ उस पर छोड़ देना है अगर हमने इसे अपने हाथों में रखा तो हमारी बात नहीं बनेगी जैसे कि अगर हम कहें कि बीज हमने पृथ्वी में नहीं डालना अपने हाथों में ही रखना है तो वह वृक्ष नहीं बन पाएगा वह हमारे हाथों में ही पड़ा रहेगा और एक दिन सड़ जाएगा तो हमें ऐसा बिल्कुल भी नहीं करना है हम जितनी भी भजन बंदगी करते हैं जितना भी नाम जप करते है उसको मालिक के आगे अर्पण कर देना है और ऐसा करने से हमारा मन निर्मल होता है और वह सत्संग करता जी फरमाते हैं कि मुझसे कुछ सत्संगी सवाल करते हैं कि हमारा मन भजन सिमरन में नहीं लगता हमें ध्यान नहीं आता तो आप जी कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि जब हम बैठे तभी ही हमें ध्यान आ जाए या फिर हमारा मन सिमरन में लग जाए इसके लिए तो हमें प्रयास करना होगा मेहनत करनी होगी तब जाकर हमारा मन लगने लगेगा और अंदर से रस आना शुरू होगा और फिर ध्यान आना शुरू होगा लेकिन हममें से कुछ सत्संगी इस बात को समझ ही नहीं पाते वह चाहते हैं कि जब हम बैठे तभी हमारा ध्यान लग जाए और हमारा मन सिमरन में लग जाए जबकि ऐसा नहीं हो सकता हम दिन के 23 घंटे दुनियादारी को दे देते हैं दुनिया को दे देते हैं तो हम यह बात कैसे सोच सकते हैं कि हम एक घंटा ही बैठे और हमारा मन सिमरन में लग जाए ऐसा कैसे हो सकता है इसके लिए तो समय लगता है मेहनत करनी पड़ती है प्रयास करने पड़ते हैं तब जाकर बात बनती है लेकिन हममें से कुछ सत्संगी यही सोच रखते हैं कि जब हम बैठे तब ही हमें ध्यान आ जाए जबकि ऐसा होना संभव नहीं है यह तो ऐसा ही है जैसे कि कोई कहे कि मुझे फल पहले चाहिए बीज को मैं बाद में बोयूंगा जबकि ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि पहले हमें बीज को पृथ्वी में डालना पड़ता है और फिर जाकर उसका वृक्ष बनता है और फिर जाकर उससे फल मिलते हैं तो ऐसे ही रूहानियत का यह मार्ग भी है जब हमें नाम की बख्शीश होती हम बैठना शुरू करते हैं धीरे-धीरे हमारा मन लगना शुरू हो जाता है और फिर जाकर बात बनती है तो उसके बाद वह सत्संगी उनकी इन बातों को समझ जाता है और उनकी बातों पर अमल करता है और कुछ दिनों बाद उसकी फिर उनसे मुलाकात होती है और जब दोबारा उसकी मुलाकात उस सत्संग करता जी से होती है जो की कमाई वाले होते हैं वह भागा भागा उनके पास आता है और कहता है की ज्ञानी जी मेरी तो बात बन गई जैसा आपने कहा था मैंने वैसा ही किया मैंने अपने अंदर से यह बात निकाल ही दी कि मैं कुछ कर रहा हूं और मैंने सब कुछ मालिक को अर्पित कर दिया और उसी दिन से मेरी बात बनने लगी और मेरा यह निजी अनुभव है कि मैं अभ्यास में लीन था और मेरा सर शत को जाकर लग रहा था उससे टकरा रहा था और मुझे ऐसा लग रहा था कि मै उड़ रहा हूं यह अनुभव मेरे लिए बिल्कुल अनूठा था और मैं यह देखकर घबरा भी गया और मैं इसी के बारे में आपसे बात करने आया हूं कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ तो उसकी यह बात सुनकर वह सत्संग करता जी कहते है कि ऐसा अभ्यासियों के साथ होता ही है जब वह भजन बंदगी पर बैठते हैं तो उनकी सूरत ऊपर उठना शुरू करती है लेकिन जमीन नीचे खींचती है जो पृथ्वी है वह हर चीज को नीचे की तरफ खींचती है जब अभ्यासी भजन बंदगी में लीन होता है तो उसकी सूरत ऊपर की तरफ चड़ती है और उसका नीचे से तो नाता टूट जाता है और उस समय अभ्यासी को घबराना नहीं चाहिए इसीलिए सत्संग में अक्सर फरमाया जाता है कि इन बातों को हजम करना सीखो लेकिन हम इन्हें हजम नहीं कर पाते अब जो तुम्हें अनुभव हुआ है वह इसलिए हुआ है कि तुमने अपने अंदर से बात निकाल ही दी कि मैं कुछ कर रहा हूं और तुमने अपने आप को मालिक के चरणों पर अर्पित कर दिया और तुम्हारी बात बन गई और इसके आगे तुम्हारे साथ कुछ और अनुभव होंगे उसके लिए भी तुम्हें सावधान रहना चाहिए क्योंकि जब अंदर नाम प्रकट हो जाता है तो उसे संभाल पाना हर किसी के बस की बात नहीं होती जब मालिक का नाम अभ्यासी के अंदर प्रकट होने लगता है तो उसके पूर्व कर्मों का सफाया होने लगता है तो जब उसके कर्मों का सफाया होने लगता है तो अभ्यासी को लगता है कि उसकी मृत्यु होने वाली है जैसे कि वह भी कर्मों के साथ खत्म हो रहा है जबकि उस समय हमारे कर्मों का सफाया हो रहा होता है और हमारा पूर्व जन्म हो रहा होता है यह ऐसा ही है जैसे कि एक व्यक्ति का फिर से जन्म हो जाए एक जन्म तो वह है जो हमें माता-पिता से मिलता है जो कि हमारी देह होती है लेकिन एक जन्म वह है जो हमें मालिक की कृपा से हासिल होता है जोकि आत्मा का नया जन्म है जब हमारे कर्मों का पूरी तरह सफाया हो जाता है उस दिन हमारा नया जन्म होता है जिसको द्विज भी कहा जाता है तो उस समय हमें घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि उस समय अक्सर अभ्यासियों को ऐसा लगता है कि मेरी मृत्यु पास आ रही है और उसे ऐसे लगने लगता है कि जैसे जैसे मेरे कर्म खत्म हो रहे हैं वैसे वैसे ही मैं भी खत्म हो रहा हूं जबकि उस समय केवल हमारे कर्मों का सफाया हो रहा होता है तो आप जी कहते है कि तुम्हें इन बातों का ख्याल रखना है और तुम बहुत बढ़भागी हो कि तुम यहां तक पहुंच पाए हो और यह केवल तुम्हारे कठोर प्रयास के कारण ही हुआ है कि तुम्हें ऐसे अनुभव हो रहे है तो तुम्हें मालिक का शुक्र करना चाहिए कि तुम्हारे अंदर भी नाम प्रकट हुआ है और तुम्हारी बात बनने लगी है, तो साध संगत जी आज के इस प्रसंग से हमें भी यही प्रेरणा लेनी चाहिए कि अगर हमें भी नाम की बख्शीश हो गई है और हम इस मार्ग पर चल रहे हैं तो जो अनुभव हमें इस मार्ग पर होते हैं उनको हमें हजम करना सीखना है और जो गलती अक्सर सत्संगी करते हैं कि वह भजन करने के बाद कहते हैं कि हमारी बात नहीं बनती हमें कुछ दिखाई नहीं देता वह केवल इसलिए है क्योंकि उनको इस बात का अहंकार है कि मैं कुछ कर रहा हूं और जब यह अहंकार अंदर से चला जाता है कि मैं कुछ कर रहा हूं उसी दिन हमारी बात बनने लगती है हमारा सफर शुरू हो जाता है और हमें अंदरूनी अनुभव होने लगते हैं ।

साध संगत जी इसी के साथ हम आपसे इजाजत लेते हैं आगे मिलेंगे एक नई साखी के साथ, अगर आपको ये साखी अच्छी लगी हो तो इसे और संगत के साथ शेयर जरुर कीजिए, ताकि यह संदेश गुरु के हर प्रेमी सत्संगी के पास पहुंच सकें और अगर आप साखियां, सत्संग और रूहानियत से जुड़ी बातें पढ़ना पसंद करते है तो आप नीचे E-Mail डालकर इस Website को Subscribe कर लीजिए, ताकि हर नई साखी की Notification आप तक पहुंच सके । 

By Sant Vachan


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