साध संगत जी आज की यह साखी सतगुरु नानक देव जी के समय की है जब सतगुरु भाई मरदाना जी के साथ करतार के नाम का सिमरन करते हुए जा रहे थे तो रास्ते में कुछ साधु संत महात्माओं से उनका मेल हो गया तो उन्होंने सतगुरु नानक को प्रणाम किया और वचन किए कि आपके बारे में बहुत सुना है आपकी कीर्ति हर जगह हो रही है और बहुत समय बाद आपके दर्शन करने का मौका मिला है
तो अब हम आपसे कुछ वार्तालाप करना चाहते हैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहते हैं तो यह सुनकर सतगुरु नानक ने फरमाया कि मैं आपके पूछने पर बलिहार जाता हूं जब प्रभु से प्यार हो जाए तो उसकी चर्चा भक्तों के काम आती है इस तरह सफल घड़ी व्यतीत करें ज्ञान की कथा सुने और सुनाएं तो उसके बाद संतो ने सतगुरु से पूछा कि आप हमें बताएं कि जो करतार है वह किस तरह का है ? उसकी बनावट किस तरह की है ? क्या उसका कोई चिन है या उसका कोई रूप है ? जिसकी देवता और मनुष्य पूजा करते हैं और उसकी खोज करते हैं क्या वह अपने आप ही बना है ? ये आप हमें बताएं और यह प्रश्न हमने आपसे इसलिए पूछे हैं क्योंकि आपने उसका भेद पा लिया है आदि अंत आपने सब देख लिया है आप हमें बताएं कि इस सृष्टि की रचना से पहले क्या था और इस सृष्टि की रचना कैसे हुई यह सुनकर सतगुरु ने वचन किए हे संतो ! उसका कोई अंत नहीं है और उसको सभी बेअंत कहते है इससे ज्यादा उसे जाना नहीं जा सकता जिस तरह 1 साल में 12 महीने होते हैं और देवी देवताओं के लिए एक रात होती है और एक देवता की उम्र 2000 वर्ष होती है और ब्रह्मा का वह 1 दिन होता है इस प्रकार के जो दिन रात है उसके 100 वर्षों को ब्रह्मा की उम्र माना जाता है ब्रह्मा की जितनी उम्र है वह विष्णु का 1 दिन है जब ब्रह्मा का 1000 वर्ष पूरा हो जाता है उसको विष्णु की उम्र समझे और जितनी विष्णु की उम्र है वह शिव जी का 1 दिन है इस प्रकार का जस 100 साल तक होता है और उसके बाद शिवजी अपनी देह को छोड़ देता है इस प्रकार वह माया के एक निमख के समान है उस माया का ही अगर कोई अंत नहीं है तो उसके मालिक का कोई क्या दृष्टांत होगा यह कहकर गुरु जी ने शब्द का उच्चारण किया राग गुजरी मोहल्ला पहला "नाभि कमल ते ब्रह्मा उपजे बेद पड़े मुख कंठ सवार ना को अंत ना जाई लखना आवत जावत रहे गुबार" विष्णु की नाभि से ब्रह्मा पैदा हुआ लोग अपने गले को सवार कर वेदों को पढ़ते हैं लेकिन वह उसके ऊपर जान नहीं पाया और आने जाने की अंधेरी में पढ़ा रहा और सतगुरु कहते है मैं अपने प्रीतम प्रभु को क्यों विसारूं वह तो मेरे प्राणों का आसरा है पूर्ण पुरुष उसकी भक्ति करते हैं और ऋषि मुनि गुरु के उपदेशों के अनुसार उसका सिमरन करते हैं जब विष्णु की नाभि से सुंदर कमल प्रकट हुआ और उस कमल से चार मुख्य वाला चतुर ब्रह्मा पैदा हुआ और ब्रह्मा करतार की खोज करने लगा लेकिन वह उसके अंत को नहीं जान पाया वह खोज खोज कर थक गया तो कलयुगी मनुष्य विचारे ने क्या विचारना और समझना तो ये सुनकर वह साधु संत सतगुरु से कहने लगे कि आप हमें विस्तार पूर्वक समझाएं तो सतगुरु ने वचन किए कि पृथ्वी की रचना से पहले का प्रसंग सुने जब ब्रह्मा विष्णु की नाभि से उपजे हुए कमल से पैदा हुआ तो उसने प्रभु की उस्तत्त की और मन में करतार को जानने की इच्छा हुई कि वह किस तरह का है और वह क्या करता है प्रभु को प्रसन्न करने के लिए बहुत मंत्र कहे और प्रीत लगाकर मुख से वचन उचारे और मीठे शब्दों में उसे गायन किया और सिर्फ प्रीत विचार कर वह उसकी और उस्तत्त करने लगा और अर्थ विचार कर सुख लेने लगा और प्रेम में मगन होकर खुशी मनाई और फिर ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना की जो कि जगत में बहुत मशहूर हुए और फिर चतुर ऋषियों ने उन वेदों को देखा और विचारा और फिर स्मृति और शास्त्र रच दिए और फिर चार वेदों की रचना करकर ब्रह्मा ने यह विचार किया कि मैं किस तरह पैदा हुआ हूं और कौन मुझे प्रकट करने वाला है तो सभी तरफ दृष्टि कर कर देखा तो हर जगह बेअंत पानी ही पानी था और फिर अपनी तरफ देखा कि एक मैं हूं और एक पानी है और यह देख कर मन में बहुत अहंकार पैदा हुआ कि मैंने प्रभु की उस्तत्त की है सब कुछ करने वाला मैं ही करता हूं और कोई भी सिरजनहार नहीं है अगर कोई और होता तो मुझे जरूर दिखाई पड़ता लेकिन मैंने किसी को भी नहीं देखा, इस तरह हृदय में अहंकार हो गया कि सब कुछ करने वाला करतार मैं ही हूं और कोई दूसरा नहीं है फिर गंभीर स्वर में आकाश से मीठी वाणी हुई हे ब्रह्मा ! हृदय में अहंकार क्यों करता है मैं ही प्रकाश हूं जिससे तेरा जन्म हुआ है तो हृदय में मेरी खोज करो तो ये सुनकर ब्रह्मा ने कहा कि मैंने यहां पर अच्छी तरह से देखा है जहां पर एक मैं हूं और एक पानी है और कोई मुझे दिखाई नहीं दिया अगर कोई तीसरा है तो मुझे बताओ तो फिर आकाश से आकाशवाणी हुई कि जिस पर बैठकर तुमने परम आनंद लिया है उसी को अपनी उत्पत्ति का कारण समझो तब जाकर मन में अहंकार को धारण करना तो ब्रह्मा ने कमल फूल को देख कर कहा कि यह तो मेरे आगे बहुत छोटा है मैं अपनी देह को बहुत बड़ी देखता हूं मेरे लिए ये संदेह वाली बात है क्योंकि मुझे ये समझ नहीं आ रही कि इतनी छोटी चीज इतने बड़े आकार को कैसे पैदा कर सकती है फिर अकाश से अकाल पुरख बोले कि अगर अच्छी तरह से खोज करोगे तो यह समझ में आ जाएगा कि छोटा बड़ा क्या है तो ये सुनकर ब्रह्मा बहुत हैरान हुआ और चिंतित होकर कमल की तरफ देखने लगा की मैं बहुत बड़ा हूं और यह कमल बहुत ही छोटा है मेरी उत्पत्ति इस छोटे से कमल में से कैसे हो सकती है बहुत सोचने के बाद हृदय में फिर विचार किया कि मैं इसको लात मार देता हूं अगर इसने सहार लिया तो मैं समझ लूंगा कि यह मेरा ही मूल है और अगर यह टूट गया तो समझूंगा कि यह व्यर्थ बात है तो कमल को जब लात मारी तो कमल बिल्कुल भी नहीं हिला और यह देख कर एक और लात मारी तो वह कमल के बीच जाकर गिर पड़ा और नाली में चला गया जैसे कि एक गहरी खाई में कोई गिर पड़े और उसका अंत ना जान पाए नाली में गिरते हुए कहीं भी रुक ना पाया कभी सिर ऊपर हो रहा था कभी नीचे की तरफ हो रहा था वह नाली में लगातार चला जा रहा था और उसने व्याकुल होकर बहुत दुख पाया और वहां से निकलने का कोई उपाय नहीं पाया जब उसने कहा था कि आदि अंत सब में ही हूं उसने अहंकार को धारण करकर इन वचनों का उच्चारण किया था इस तरह उसके अंदर से अहंकार बिल्कुल निकल गया जब बहुत नीचे जाकर गिरा तब बहुत दुख पाया और फिर प्रभु की उस्तत्त की और कहा हे कभी नाश ना होने वाले स्वामी आप अंतर्यामी हो पारब्रह्म स्वामी हो आप सभी पापों का नाश करने वाले हो और सभी दुखों को दूर करने वाले हो तो जब अकाल पुरख दीनदयाल ने ब्रह्मा को अहंकार रहित होता हुआ देखा तो तुरंत नाली में से निकाल लिया अंधेरे गुंबरी में से निकाल लिया और फिर उसने कमल पर बैठकर बहुत सुख पाया फिर वह हाथ जोड़कर प्रभु की उस्तत्त करने लगा प्रभु की वंदना करने लगा हे प्रभु जी आप अगम, अगोचर, अनंत, अटल और अभिनाशी हो आप रूप रहित, अनुपम, लेखा रहित अटल, अनोखे, पवित्र, भेखरहित, कर्म रहित, भर्म रहित अविनाशी, भय रहित आदि रहित और अपने आप से प्रकाशित हो आपकी कोई रेख नहीं रंग नहीं मोह नहीं और ना ही माया है अजित जन्म रहित और कभी नहीं बूढ़ा होने वाले स्त्री रहत हो सभी से दूर हो फिर भी सभी के पास हो और सभी के अंदर बसते हो आप बेअंत हो आपका कोई अंत नहीं है आप अपरंपार हो आपका कोई पारावार नहीं पा सकता हजारों नाम का उस समय उच्चारण किया और फिर उस समय आकाशवाणी हुई बादलो की गर्ज में से मीठी आवाज गूंजी और मालिक ने तीन बार कहा तप करो ! तप करो ! तप करो ! ताकि आप में जगत को रचने की शक्ति आए और फिर सृष्टि जगत की रचना करो और फिर ब्रह्मा ने वहां बैठकर शक्ति हासिल कर जगत की रचना की और फिर सतगुरु ने कहा कि ऐसे प्रभु ने जगत की रचना की जिसका अंत नहीं पाया जा सकता, विधाता ब्रह्मा देखता ही रह गया हम कलयुग के जीव उसको क्या जान पाएंगे जिसको जाना ही नहीं जा सकता जो लेखरहित है और गुरु जी कहते हैं कि उस परमेश्वर से मेरी प्रीत लगी है और वह सदा ही मेरे हृदय में विराजमान है जिसकी शिव जी और अन्य देवता युगो से उसकी पूजा कर रहे हैं और ब्रह्मा आज उसको सदैव अंनत अंनत कहकर पुकारता हैं सतगुरु कहते है वह प्रभु मेरे मन में विराजमान है और मेरे प्राणों का आधार है आठों पहर वह मुझसे विसर्ता नहीं तो वह संत सतगुरु के ये वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और फिर उन्होंने धन धन धन कहा और कहने लगे कि आपके वचन मुक्ति दाते हैं लेकिन हमारे हृदय में एक और शंका है की हमारी इन आंखों में से कौन देखता रहता है और यह कौन है यह सारा पसारा क्या है आप हमें बताने की कृपा करें क्योंकि आपके जैसा ज्ञानी हमें और कोई नहीं मिल सकता तो ये सुनकर सतगुरु ने शब्द को उच्चारा श्रीमुख वाक "रब सस दीपक जाके त्री भवन एका जोत मुरार गुरमुख होए सो एहनस निर्मल मनमुख रहन अंधार" जिसका अर्थ है कि सूर्य और चंद्रमा जिसके दीपक है उस स्वामी का नूर तीनों जहानों को ही प्रकाशित कर रहा है लेकिन वह इस भेद को नहीं जान पाता जो मन्मुख रात के अंधेरे में गिरा हुआ है और सतगुरु नानक ने कहा कि चांद और सूर्य में जो जोत है उसके कारण ही जगत में प्रकाश होता है और वह जोती प्रभु की ही दी हुई है और उनको जोती देकर जगत के दीपक बना दिया है वैसी ही ज्योति हम सभी के अंदर जग रही है उसी ज्योति के कारण आंखों से नजर आता है सबके अंदर प्रभु की जोत ही विराजमान है जो गुरमुख हो जाता है वहीं इसे जान पाता है कि वह प्रभु हर हृदय में रम रहा है लेकिन जो मन्मुख है वह ये बात कभी भी जान नहीं पाता वह उस सत्य को जान नहीं पाते जो सतनाम का जाप नहीं करते वह माया के अंधेरे में अंधे होते है प्रभु का मार्ग वह नहीं जानते तो ये सुनकर संतो ने कहा कि जो लोग आंखों से अंधे नहीं है वह इस जगत की सृष्टि को देखते हैं लेकिन जो अंधे हैं और उनकी जोत आ जाती है उनके बारे में बताएं तो यह सुनकर सतगुरु ने फिर शब्द का उच्चारण किया "सिद्ध समाध करे नित झगड़ा दोहो लोचन क्या हेरे अंतर जोत शब्द धुन जागे सतगुरु चगर निबेरे" जिसका अर्थ है कि सिद्ध समाधि में सदा ही अपने अंदर ही झगड़ते रहते हैं फिर वह अपनी दो आंखों से क्या देख सकते है जिसके अंदर करतार विराजमान है वह नाम के कीर्तन से जाग उठता है और सच्चे गुरु उसके बिखेडे दूर कर देते हैं सिद्धों और साधुओं ने अपने अंदर ही झगड़ा किया है आंखों में मांस और पानी है यह बात सभी जानते हैं यह बात छुपी हुई नहीं है लेकिन इनमें देखने वाली वस्तु कौन सी है इन्होने इसी पर झगड़ा किया और ऋषि मुनियों ने भी इस तथ्य को नहीं जाना सिद्ध समाध जो बड़े तप करते हैं वह भी इस भेद को नहीं जान सके हैं सतगुरु के बिना इसे कोई नहीं जान सकता कि वह कौन सी चीज है जो अंदर से देखती है जब अंदर ज्योति जलती है तब इसके अंदर वह समझ होती है सतगुरु कहते हैं जो सतगुरु के शब्दों की कमाई करता है और दशम द्वार पर उस नाम की धुन को सुनता है तो सतगुरु उसके इस झगड़े का निपटारा कर देते हैं और उसे ना ही कोई देखता है और ना ही कोई जान पाता है हमारे अंदर जो भी अंग है जो भी आतीडिया है वह जो क्रिया करती हैं वह उस परमजोत के अनुसार ही करती है इसलिए आप अंतर में ज्योति की खोज करें जैसी आपकी समझ है आप उसे खोज लोगे तो सतगुरु की ये वचन सुनकर वह साधु संत सत्गुरु से बहुत प्रभावित हुए और सतगुरु से पूछने लगे कि हम उस एक ओंकार और प्रभु से कैसे मिले जिससे कि हमारा छुटकारा हो सके और उसको कैसे पाया जा सकता है वे युक्ति हमें बता दें तो सतगुरु ने फिर वचन किए और सुंदर शब्द को पूरा किया "सुर नर नाथ बेअंत अजोनी साचा महल अपारा नानक सेहज मिले जग जीवन नदर करो निस्तारा" जिसका अर्थ है कि देवताओं और मनुष्य का मालिक वह सतनाम है उसका सच्चा महल अपार हैं और वह अपनी दृष्टि से मनुष्य का निस्तार कर देता है देवताओं और मनुष्यों का राजा परमेश्वर बेशुमार है जिसके महल अपार है जो अपनी दृष्टि से जीवो का छुटकारा कर देता है तो संतो ने सतगुरु के मुख्य से जब यह वचन सुने तो मन में शांति आ गई और हाथ जोड़कर सतगुरु के चरणों पर वंदना की और हाथ जोड़कर विनती की कि आप परमेश्वर का रूप हो और आप देह धारण कर यहां पर आए हो ताकि मनुष्यों का उधार हो सके और वह संत सतगुरु से कहने लगे अब हमारे पास और कोई दूसरा स्थान नहीं है आप हमें नाम की दात देकर हमें मुक्ति बक्शे तो सतगुरु महाराज ने उन्हें कहा कि दिन-रात श्रद्धा धारण करो और उसके नाम का सुमिरन करो ताकि आपको आसानी से मुक्ति मिल सके तो सद्गुरु उन्हें उपदेश देकर आगे चल पड़े और वह संत भी सद्गुरु से प्रभावित होकर उनके साथ चल पड़े तो साध संगत जी जहां पर गुरु नानक प्रकाश ग्रंथ के 26 वीं अध्याय की समाप्ति होती है प्रसंग सुनाते हुई अनेक भूलों की क्षमा बक्शे जी ।
साध संगत जी इसी के साथ हम आपसे इजाजत लेते हैं आगे मिलेंगे एक नई साखी के साथ, अगर आपको ये साखी अच्छी लगी हो तो इसे और संगत के साथ शेयर जरुर कीजिए, ताकि यह संदेश गुरु के हर प्रेमी सत्संगी के पास पहुंच सकें और अगर आप साखियां, सत्संग और रूहानियत से जुड़ी बातें पढ़ना पसंद करते है तो आप नीचे E-Mail डालकर इस Website को Subscribe कर लीजिए, ताकि हर नई साखी की Notification आप तक पहुंच सके ।
0 Comments
Please do not enter any spam link in the comment box.