Saakhi : कमाई वाले सत्संगी लोग किसी के घर का खाना क्यों नहीं खाते ? जरूर सुने

 

साध संगत जी आज की यह साखी एक जत्थेदार जी ने संगत को सुनाई थी की कमाई वाले सत्संगी लोग किसी के घर का खाना क्यों नहीं खाते और उनके ऐसा करने के पीछे क्या कारण है वह उन्होंने इस साखी के माध्यम से संगत को समझाया था तो आइए बड़े ही प्यार से आज का यह प्रसंग सरवन करते हैं ।

साध संगत जी साखी की शुरुआत में आप जी फरमाते हैं कि मेरे एक बहुत अच्छे सत्संगी मित्र हैं जो कि अक्सर मुझसे परमार्थ की बातें करते रहते हैं और हमारे एक दूसरे के साथ बहुत अच्छे संबंध है जब भी मैं उनसे मिलता हूं तो उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलता है क्योंकि वह बहुत ही कमाई वाले हैं तो एक बार की बात है कि मैं उनके साथ बैठा हुआ था और उनके साथ कुछ और संगत भी थी और उस समय हमारी सेवा चल रही थी तो जब चाय पीने का समय हुआ तब वहां पर कुछ वार्तालाप होने लगी किसी सत्संगी ने यह सवाल कर दिया कि जो कमाई वाले जीव हैं यह किसी के घर का खाना क्यों नहीं खाते ? ऐसी भी कौन सी बात है कि वह इतना परहेज करते हैं तो उन्होंने उस सत्संगी के इस प्रश्न का जवाब बहुत ही अच्छे तरीके से दिया था और उन्होंने जो उसे बताया वह उनकी सच्ची आप बीती थी की सत्संगी नाम लेने के बाद ऐसा क्यों करते हैं और वह इतना परहेज क्यों करते हैं कि घर का बनाया हुआ खाना ही खाते हैं बाहर की चीजों से परहेज करते हैं तो उन्होंने फरमाया कि एक बार मेरे रिश्तेदारों में किसी की शादी थी और मैं वहां पर गया हुआ था तो एक हफ्ते के करीब मैं वहां पर रहा तो जिनके घर हम गए थे वह जो परिवार था वे काफी धनी व्यक्ति थे क्योंकि उनका बहुत अच्छा कारोबार था तो जब मैं उनके घर पर एक हफ्ते तक रहा तो जैसे कि हम सभी जानते हैं कि जब हम अपने घर को छोड़कर अपने काम काजो को छोड़कर किसी दूसरे के घर जाते हैं तो वहां जाकर हमारी जो दिनचर्या होती है उसमें कुछ तब्दीली हो जाती है जैसे हम घर पर भजन बंदगी कर सकते हैं बैठक कर सकते हैं वैसी ही बैठक वहां जाकर नहीं बनती क्योंकि एक तो वह पराया घर है और फिर वहां का माहौल भी हमारे मुताबिक नहीं होता तो हमें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है लेकिन जैसे कि अक्सर फरमाया जाता है कि सत्संगी को भजन बंदगी में कभी भी नागा नहीं डालना चाहिए मन लगे या ना लगे उसे बैठना जरूर चाहिए और यही गुरु का हुक्म है तो मैंने भी अपनी जिंदगी में कभी भजन बंदगी में नागा नहीं डाला लेकिन वहां जाकर मेरी वैसी बात नहीं बनी जैसे कि घर पर बनती थी और ना ही वहां पर ध्यान आया तो जब हम 1 हफ्ते के बाद वापस अपने घर आ गए तो अपने घर आकर चैन की सांस ली लेकिन वहां से आकर मेरे साथ कुछ अजीब अनुभव हुए जो कि आप से सांझा करता हूं कि जब मैंने घर आकर बैठक करनी शुरू की तब भी मेरी बात वैसे नहीं बनी जैसे कि पहले बनती थी तो मैंने इस पर बहुत विचार विमर्श किया कि ऐसा क्या हुआ है जिसके कारण मेरे साथ ऐसा हो रहा है तो जब भी मैं बैठता था अजीब अजीब ख्याल मेरे दिमाग में आते थे तो मैंने इस पर गहराई से विचार किया कि मेरे दिमाग में यह सब क्यों चल रहा है मेरा तो इससे कोई लेना-देना भी नहीं है यह बातें मेरे दिमाग में क्यों आ रही है उसके बाद मैंने अपनी इस मुश्किल का हल ढूंढना शुरू कर दिया क्योंकि जब से मैं वहां से आया था ना तो मेरे से ठीक से भजन बंदगी हो पा रही थी और ना ही ध्यान आ रहा था तो मुझे इस बात का बहुत अफसोस हुआ कि मैंने ऐसा क्या कर दिया कि जिसकी वजह से मेरे साथ यह सब हो रहा है तो आप जी ने कहा कि जब भी अभ्यासी पर कोई मुश्किल आती है उसकी अंदर बात नहीं बनती उसे मार्गदर्शन चाहिए होता है तो मालिक कोई ना कोई बहाना बना ही देता है वह किसी ना किसी रूप में हमारा मार्गदर्शन कर ही देता है कि मेरे शिष्य को इस मार्ग पर कोई मुश्किल ना आए तो ऐसे ही मैं 1 दिन किताब पढ़ रहा था और पढ़ते-पढ़ते मुझे वही विषय मिला जिसको लेकर मैं परेशान था चिंतित था और उस किताब में सतगुरु ने फरमाया हुआ था कि अभ्यासी को अपने खानपान का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि हम जैसा भी खाते हैं जिसका भी खाते हैं वैसे ही विचार हमारे मन में आने लगते हैं क्योंकि हमारे खाने का सीधा संबंध हमारे मन से है जैसा अन होगा वैसा ही मन होगा तो हमें कोशिश करनी चाहिए कि हमें हल्का-फुल्का खाना ही खाना चाहिए क्योंकि ज्यादा स्वादिष्ट चीजों का सेवन करना भी एक रस है जो कि हमारे इस मार्ग में बाधा बनता है तो आप जी कहते हैं कि यह बात पढ़ कर मेरे सतगुरु ने मेरे मालिक ने मेरा मार्गदर्शन कर दिया और मुझे यह बात समझ में आ गई कि सतगुरु ने ऐसा क्यों कहा कि हम जो भी खाते हैं जिसका भी खाते हैं उस पर ध्यान देने की जरूरत है तो मुझे ये समझ आ गया था कि जिनके घर में गया हुआ था और वह जो काम करते थे और उससे जो उनकी कमाई होती थी वही कमाई मैंने वहां जाकर खाई है जिसकी वजह से मेरे साथ यह सब हुआ है और ऐसे अनुभव केवल उसी को होते हैं जो नाम मार्ग पर चलते हैं जो बंदगी करते हैं सीधे-साधे संधारण व्यक्ति को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किसका खा रहा है और कितना खा रहा है फर्क तो एक अभ्यासी को पड़ता है क्योंकि जब वह जगह-जगह से खा कर भजन बंदगी पर बैठता है और अंदर उसकी बात नहीं बनती उसे समझ आ जाती है कि कहीं ना कहीं कोई गड़बड़ जरूर हुई है साध संगत जी ऐसा ही एक बार मोहम्मद साहब के साथ भी हुआ था जब मोहम्मद साहब की तबीयत खराब हो गई और उनका अंतिम समय जब नजदीक आया तो उनकी पत्नी ने देखा कि अब इनकी तबीयत खराब हो गई है तो मुझे इनके बारे में कुछ सोचना होगा तो जितना भी चड़ावा चढ़ता था मोहम्मद साहब सभी गरीबों में बांट दिया करते थे शाम के समय में जो कुछ भी उनके पास होता था वह सब बांट दिया करते थे कुछ भी अपने पास नहीं रखते थे तो एक बार मोहम्मद साहब की पत्नी ने कुछ पैसे उठाकर छिपा लिए क्योंकि वह जानती थी कि इनकी तबीयत अब ठीक नहीं रहती तो उनके इलाज के लिए कुछ धन की जरूरत होगी तो उनकी पत्नी ने कुछ पैसे उठाकर छिपा लिए तो जब रात हुई मोहम्मद साहब खुदा की बंदगी में बैठे और खुदा को याद किया तो अंदर उन्हें यह महसूस होने लगा कि मुझसे बाहर कोई गड़बड़ हो गई है कुछ तो ऐसा हुआ है जिसके कारण मुझे यह महसूस हो रहा है कि मैंने चढ़ावे का कुछ धन अपने पास रख लिया है तो मोहम्मद साहब ने अच्छे से विचारा और देखा कि जाकर देखूं कि कुछ पढ़ा हुआ तो नहीं है तो जब उन्होंने देखा तो उन्हें कुछ भी नहीं मिला तो उन्होंने इसकी बात अपनी पत्नी से की कि मुझे ऐसा लग रहा है कि मैंने कुछ चढ़ावे का धन अपने पास रख लिया है लेकिन मैंने सभी जगह देखा कहीं पर भी कुछ नहीं मिला, कहीं तुमने तो नहीं रखा तो मोहम्मद साहब की पत्नी समझ जाती है कि ये ऐसा क्यों कह रहे हैं तो उनकी पत्नी तकिए के नीचे से वह छिपा कर रखा हुआ धन मोहम्मद साहब को दे देती है और मोहम्मद साहब वे धन बाहर जाकर बांट देते हैं और फिर आकर खुदा की बंदगी में लीन हो जाते है, साथ संगत जी इस साखी से हमें भी यही प्रेरणा मिलती है कि अगर हमें नाम की बख्शीश हो गई है और हम गुरु के सत्संगी बन गए है तो हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि हम किस का खा रहे हैं कितना खा रहे हैं क्योंकि सतगुरु अक्सर फरमाते हैं की पाई पाई का हिसाब देना पड़ेगा और एक साखी में सतगुरु गोविंद सिंह जी ने भी फरमाया है की चढ़ावे का धन जहर के समान होता है और यह बात तब की है जब सतगुरु गोविंद सिंह जी ने चढ़ावे का धन नदी में फिकवा दिया था और कुछ सेवकों ने सतगुरु से पूछा था कि सतगुरु आपने ऐसा क्यों किया जबकि हमें इसकी बहुत आवश्यकता थी लेकिन आपने इसको नदी में फिकवा दिया तो सतगुरु ने वहां पर वचन किए थे कि चड़ावे का धन जहर के समान होता है तो कोई बाप अपने बच्चों को वह चीज कैसे दे सकता है जबकि उसे पता है कि वह उसके बच्चों के लिए ठीक नहीं है तो साध संगत जी हमें भी इसी प्रेरणा के साथ रूहानियत के इस मार्ग पर चलना है और अपने सतगुरु द्वारा दिए हुए उपदेशों को आगे रखकर मालिक की भजन बंदगी करनी है नाम की कमाई करनी है ।

साध संगत जी इसी के साथ हम आपसे इजाजत लेते हैं आगे मिलेंगे एक नई साखी के साथ, अगर आपको ये साखी अच्छी लगी हो तो इसे और संगत के साथ शेयर जरुर कीजिए, ताकि यह संदेश गुरु के हर प्रेमी सत्संगी के पास पहुंच सकें और अगर आप साखियां, सत्संग और रूहानियत से जुड़ी बातें पढ़ना पसंद करते है तो आप नीचे E-Mail डालकर इस Website को Subscribe कर लीजिए, ताकि हर नई साखी की Notification आप तक पहुंच सके । 

By Sant Vachan


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