साध संगत जी आज की साखी है कि आखिर क्यों ! सत्संगीओं को भजन सिमरन में अंदर कुछ दिखाई नहीं देता, साध संगत जी यह प्रशन आज से वर्षों पहले एक अभ्यासी ने सतगुरु से किया था उसने कहा था कि सतगुरु मुझे 35 वर्ष हो गए हैं नाम लिए और मैंने डटकर सेवा की है सत्संग भी बहुत सुने है और मैं भजन बंदगी को समय भी देता आ रहा हूं लेकिन मुझे आज तक भजन बंदगी में अंदर कुछ दिखाई नहीं दिया जब भी मैं भजन सिमरन पर बैठता हूं तो मुझे अंदर दीवारें ही दीवारें दिखाई देती है और अंधेरा ही अंधेरा होता है बस यही देखता आया हूं और इसके इलावा मुझे अंदर कुछ दिखाई नहीं दिया, कभी-कभी तो मेरा मन करता है कि यह मेरे बस की बात नहीं है मुझे यह सब छोड़ देना चाहिए लेकिन फिर अंदर से आवाज आती है कि नहीं मेरे गुरु का हुक्म है कि चाहे मन लगे या ना लगे लेकिन भजन बंदगी को समय जरूर देना है तो इसीलिए केवल आपके हुकुम को निभाने के लिए मैं आज तक करता आ रहा हूं लेकिन मुझे अंदर कुछ दिखाई नहीं दिया तो उस समय सतगुरु ने एक साखी की मदद से बहुत ही अच्छे तरीके से उस अभ्यासी को समझाया था क्योंकि साध संगत जी जितनी आसानी से एक साखी के माध्यम से और एक कहानी की मदद से समझाया जा सकता है उतना किसी और तरीके से नहीं समझाया जा सकता तो वह कहानी मैं आपसे सांझा करता हूं साध संगत जी साखी को पूरा सुनने की कृपालता करें जी ।
यह बात सतगुरु गोविंद सिंह जी के समय की है और उस समय सतगुरु की सभा लगी हुई थी और सतगुरु का सत्संग चल रहा था सतगुरु संगत को अनमोल वचन फरमा रहे थे उनको मालिक से जोड़ रहे थे तब एक सीधा साधा किसान सतगुरु के पास चलते सत्संग में आकर कहने लगा कि मुझे कोई सेवा बक्शे ! साध संगत जी आप तो जानते ही हैं कि उस समय मुगलों से लड़ाईयां होती रहती थी तो गुरु साहब ने उससे पूछा कि तुझे बंदूक चलानी आती है ? तो उसने कहा सतगुरु मुझे बंदूक चलानी नहीं आती, तो सतगुरु कहने लगे क्या तुझे घुड़सवारी करनी आती है ? तो उसने कहा नहीं सतगुरु मुझे घुड़सवारी भी नहीं आती, तो गुरु साहब ने उससे कहा कि फिर तू क्या करेगा ? तो वह कहने लगा मैं घोड़ों की सेवा कर लिया करूंगा तो सतगुरु ने उसे घोड़ों की सेवा पर लगा दिया और वह बड़े ही प्रेम और प्यार से सेवा करता रहा, घोड़ों की लीद वगैरा फेंक आता, घोड़ों को अच्छी घास डालता और हर प्रकार की सफाई रखता तो दो-तीन महीनों में घोड़े बहुत अच्छे तगड़े हो गए थे और एक दिन गुरु साहब ने आकर देखा कि घोड़े बड़े तगड़े हो गए हैं और गुरु साहब ने अस्तबल के मुखिया से पूछा कि घोड़ों की इतनी सेवा किसने की है तो उसने गुरु साहब को बताया कि भाई बेला ने की है तो गुरु जी ने भाई बेला से पूछा तेरा नाम क्या है और उसने बताया कि सतगुरु मेरा नाम बेला है तो गुरु जी कहने लगे बेला कुछ पढ़ा लिखा भी है ? तो उसने उत्तर दिया कि सतगुरु मैं कुछ पढ़ा लिखा नहीं हूं तब गुरु साहब ने कहा अच्छा आज से तुझे हम पढ़ाएंगे और तुम हमारे पास पढ़ा करना और साथ-साथ सेवा भी किया करना तो गुरु साहब उसे रोज एक पंक्ति बता देते थे और वह याद करता रहता था और एक दिन गुरु साहिब मुगलों के साथ लड़ाई के लिए जा रहे थे भाई बेला दौड़कर आया और बोला कि मुझे आज के लिए एक तुक दे जाएं, तो गुरु साहब ने कहा कि वक्त नहीं देखता कि हम कहीं जा रहे हैं और फरमाया "वाह भाई बेला ना पहचाने वक्त ना पहचाने वेला" तो भाई बेला ने समझ लिया कि शायद गुरु जी मुझे यही पंक्ति बता गए हैं शायद मुझे इसी का जाप करना है तो वह सारा दिन प्रेम और प्यार के साथ उसको रटता रहा की "वाह भाई बेला ना पहचाने वक्त ना पहचाने वेला" तो वहां के सब सेवादार देखकर मन ही मन में हंसने लगे कि यह बेवकूफ क्या बोलता फिरता है और जब शाम को सत्संग का समय हुआ तो उन्होंने मजाक के तौर पर गुरु साहब से पूछा कि क्या आज कोई पंक्ति आप बेला को बता गए थे तो गुरु साहिब बोले नहीं आज कोई पंक्ति नहीं बताई थी तो उन्होंने बताया कि वह तो सारा दिन यही तुक रटता रहा है कि "वाह भाई बेला ना पहचाने वक्त ना पहचाने बेला" तो गुरु साहब ने हंसकर कहा जिसने वक्त नहीं पहचाना वह समझ गया वह पार हो गया ज्यू ही गुरु साहब ने यह वचन फरमाए तब बेला की सुरत ऊपरी मंडलों में चढ़ गई अब सारा दिन प्रेम से वही जपता रहता था अगर सुरत अंदर जाती तो नाम के रंग में रंगा रहता अगर बाहर आती तो गुरु के ख्याल और नाम के प्यार में डूबा रहता, कुछ सेवादारों ने कहा कि इस दरबार में कोई न्याय नहीं है हम कब से सेवा करते आए हैं और कुछ प्राप्त नहीं हुआ, यह कल आया और नाम के रंग में रंग गया यह कैसे हो सकता है तो साध संगत जी उस जमाने में कुछ सेवादार ग्रंथि पुराणों का अनुवाद कर रहे थे और कहने लगे हमने पुराणों का अनुवाद किया, सेवा भी की, लेकिन व्यर्थ गया अब हमें यहां रहना ही नहीं चाहिए तो गुरु साहब ने देखा कि वह क्रोध में आ गए हैं तो समझाने के लिए गुरु साहब ने कुछ भांग उनको दे दी और कहा कि इस को प्रेम और प्यार के साथ पीसो क्योंकि यह नियम है कि भांग को जितना ज्यादा पीसा जाता है उतना ही ज्यादा नशा देती है तो उन्होंने प्रेम और प्यार के साथ भांग को पीसा, सतगुरु का हुक्म माना तो भांग का घड़ा तैयार हो गया तो गुरु साहब ने हुक्म दिया कि भांग की कुल्ली कर करके छोड़ते जाओ कुल्ली कर कर के बाहर फेंकते जाओ तो जब सारा घड़ा खत्म हो गया तो गुरु साहब ने उनसे पूछा कि क्या नशा आया ! तो उन्होंने जवाब दिया कि कुछ नशा नहीं आया अगर भांग पीते हमारे अंदर जाती तब नशा आना था तो गुरु साहब ने कहा बेला वाले सवाल का जवाब भी यही है कि उसे अंदर नाम का रंग चढ़ गया है क्योंकि उसने उसे पी लिया है साध संगत जी मतलब तो यह है कि जब तक अंदर प्यार ना हो मालिक से मिलने की अंदर सच्ची तड़प ना हो तब तक मुक्ति नहीं मिलती और ना ही अंदर पर्दा खुलता है और ना ही शांति आती है तो साध संगत जी इस कहानी के माध्यम से सतगुरु ने बड़े ही अच्छे तरीके से अभ्यासी को समझाया था तो आज की इस साखी से हमें भी यही सीख मिलती है कि अगर हमें भी नाम दान की बख्शीश हुई है और हम भी सतगुरु के हुक्म की पालना करते आ रहे हैं गुरु घर की सेवा करते आ रहे हैं सतगुरु के सत्संग सुनते आ रहे हैं भजन सिमरन भी हम रोजाना कर रहे हैं और अगर हमें लगे कि हमारी बात नहीं बन रही अंदर कुछ दिखाई नहीं दे रहा तो कमी हमारी तरफ से ही है सतगुरु की तरफ से कोई कमी नहीं है उन्होंने तो हमें वह युक्ति बता दी है जिस व्यक्ति के सहारे हमने उस कुल मालिक से मिलाप करना है अब हम उनकी बताई हुई युक्ति का कैसे पालन करते हैं कैसे उनके हुकुम की पालना करते हैं वह हम पर निर्भर है अगर हमारे अंदर मालिक से मिलने की सच्ची तड़प है सच्चा प्यार है तो पर्दा खुल ही जाता है कोई ज्यादा दिक्कत नहीं होती लेकिन अगर हम बस ऊपरी तरफ से सब कुछ करते आ रहे हैं एक कार्रवाई डाल रहे हैं तब हमारी बात नहीं बन सकती क्योंकि जब तक हमारे अंदर उस मालिक से मिलने की तड़प नहीं होगी, अंदर सच्चा प्यार नहीं होगा तब तक बात नहीं बनेगी और जब तक हमारा मन नहीं मानता हमारा मन अंदर जाने के लिए तैयार नहीं होता तब तक हम अंदर नहीं जा सकते अंदर पर्दा नहीं खुल सकता और अक्सर फरमाया जाता है कि यह केवल और केवल उसकी कृपा से हो सकता है क्योंकि उसकी कृपा के बिना हम एक कदम भी नहीं चल सकते और संत कबीर जी कहते हैं " कहो कबीर मन मानिया मन मानिया तो प्रभ जानेया" कि पहले हमारा मन माना और फिर ही उस प्रभु को जाना और साध संगत जी मन तो अभ्यास से ही मान सकता है जैसे-जैसे हम अभ्यास करते जाएंगे अभ्यास पक्का होता जाएगा धीरे-धीरे रस आना शुरू होगा और धीरे-धीरे मन भी मानना शुरू हो जाएगा और मालिक की कृपा से अंदर पर्दा भी खुल जाएगा इसलिए तो सतगुरु बार-बार कहते हैं कि भाई मन लगे ना लगे लेकिन भजन बंदगी जरूर करनी है और बिना नागा करनी है ।
साध संगत जी इसी के साथ हम आपसे इजाजत लेते हैं आगे मिलेंगे एक नई साखी के साथ, अगर आपको ये साखी अच्छी लगी हो तो इसे और संगत के साथ शेयर जरुर करना, ताकि यह संदेश गुरु के हर प्रेमी सत्संगी के पास पहुंच सकें और अगर आप साखियां, सत्संग और रूहानियत से जुड़ी बातें पढ़ना पसंद करते है तो आप नीचे E-Mail डालकर इस Website को Subscribe कर लीजिए, ताकि हर नई साखी की Notification आप तक पहुंच सके ।
By Sant Vachan
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