ग़ुलाम हमेशा मालिक की तान पर नाचता है, वह अपनी मर्ज़ी नहीं चलाता, क्योंकि उसकी अपनी कोई मर्ज़ी ही नहीं होती, वह अपनी मर्ज़ी अपने मालिक की मर्ज़ी में मिटा देता है, वह अपने मालिक की आज्ञा का पालन करने के लिये वचनबद्ध है, इसी तरह हम भी मालिक के ग़ुलाम बनते हैं और उसकी रज़ा में राज़ी रहने लगते हैं ।
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