जिस दिन 'सतगुरु' जीव को 'नाम' दान देते हैं, उसी दिन से अंतर में कुछ ऐसा प्रबंध करते हैं, कि वह जीव अपने प्रारब्ध कर्मों को भी भोगता रहता है, तथा साथ ही उसके 'सचखंड' पहुंचने की तैयारी भी होती रहती है...!! यदि शिष्य, प्रेम अथवा विश्वास से, सतगुरु की आज्ञा में रहता हुआ, परिश्रम व निष्ठा के साथ, उनके उपदेश पर चलता रहे, तो उसे शांति प्राप्त होती है...!! परंतु यदि वह गुरु की आज्ञा पालन में सुस्ती करे, तो वह सुख-दुख की लहरों में बहता रहता है और केवल दुख के समय ही सतगुरु को स्मरण करता है, निस्संदेह इससे भी शिष्य को लाभ होता है...!!!!
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