Guru Nanak Sakhi : जब वली कंधारी द्वारा फेंका हुआ पत्थर सतगुरु ने रोका तो क्या हुआ ! जरूर सुने

 

साध संगत जी आज की यह साखी सतगुरु नानक के समय की है जब सतगुरु नानक भूटान से चलते हुए कश्मीर पहुंचे तो आइए बड़े ही प्यार से आज का यह प्रसंग सरवन करते हैं ।

गुरु प्यारी साध संगत जी जब सतगुरु नानक भाई मरदाना जी के साथ भूटान से चलते हुए कश्मीर पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने अनेकों लोगों का उद्धार किया वहां पर सद्गुरु पहाड़ों में बहुत लंबे समय तक रहे तो एक दिन भाई मरदाना जी ने सतगुरु नानक को कहा की हे गुरु जी ! मुझे बहुत प्यास लगी है और आसपास कहीं भी पानी दिखाई नहीं देता और मेरी पानी पीने की प्रबल इच्छा है आप जी को सब कुछ पता है मुझे यह बताने की कृपा करें कि मुझे पानी कहां पर मिल सकता है अगर यहां पर पानी नहीं है तो आगे जाकर बैठते हैं यहां पर हमें सुंदर पानी प्राप्त हो तो भाई मरदाना जी की ये बात सुनकर सतगुरु नानक ने कहा कि पानी यहां आस-पास ही है ऊपर पहाड़ पर चढ़ो वहां पर एक वली कंधारी नाम का फकीर रहता है जोकि बहुत तप करता है और परलोक में जाकर सुख प्राप्त करना चाहता है उसके पास जाकर पानी की मांग करो और सतगुरु नानक ने भाई मरदाना को कहा कि जब तक तू पानी पीकर नहीं आएगा तब तक हम यहां से नहीं जाएंगे तब तक हम यहीं पर बैठे रहेंगे तो सतगुरु नानक की यह बात सुनकर भाई मरदाना पहाड़ के ऊपर चढ़ने लगे जहां पर उस पीर की जगह थी तो भाई मरदाना जी धीरे-धीरे पहाड़ पर चढ़कर उस जगह पर गए जहां पर वली कंधारी बैठा था और वहां पर उसने कुछ पानी रोक कर रखा हुआ था तो भाई मर्दाना जी कहने लगे हे पीर जी ! मुझे बहुत प्यास लगी है कृपया मुझे पानी दे मुझे यहां कहीं भी आसपास पानी नहीं मिला लेकिन यहां पर पानी होने का पता लगा था इसलिए यहां पर आपके पास आया हूं तो भाई मरदाना जी की यह बात सुनकर वली कंधारी ने कहा कि तू कौन से देश से आया है जिसे इतनी प्यास लगी है क्या तू जहां पर अकेला आया है या फिर किसी के साथ आया है और यहां पर किस कारण से आया है तो उसके यह प्रश्न सुनकर भाई मरदाना जी ने कहा कि मैं यहां पर श्री गुरु नानक देव जी के साथ पंजाब से आया हूं जिनका हिंदू और मुसलमान सभी बहुत सम्मान करते हैं और वह बहुत तप करते हैं हिंदू उन्हें अपना गुरु कहते हैं और मुसलमान उन्हें पीर कहकर पुकारते हैं वह बहुत करामाती पुरुष है सभी लोग उनके चरणों पर वंदना करते हैं और उनके चरणों पर कीमती उपहार भेंट करते हैं और मैं उनका  रबाबी हूं उनके साथ मैं सुंदर शब्दों का गायन करता हूं वह पहाड़ी के नीचे एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं मेरी कथा इस तरह है कृपया करके मुझे जल दे ताकि मैं अपनी प्यास बुझा सकूं तो जब भाई मरदाना जी ने सतगुरु नानक की कीर्ति वली कंधारी के सामने की वह उसको बर्दाश्त नहीं कर सका और ईर्ष्या से भर गया जैसे कि उसको जलता हुआ दिया अच्छा ना लगता हो और वह भाई मरदाना जी से कहने लगा कि अगर तेरे गुरु इतने करामाती है तो यहां पर वह बैठे हैं वहां पर ही जल क्यों नहीं मंगवा लेते जिसको तू इतना बड़ा करामाती पुरुष बता रहा है तो फिर उसका साथी ऐसे पानी क्यों मांग रहा है और कहने लगा ठीक प्यासे को पानी देना चाहिए अब मैं तुझे पानी नहीं दूंगा तो उसकी ये बात सुनकर भाई मरदाना जी सतगुरु नानक के पास आ गए और सारी वार्ता सतगुरु नानक को सुनाई कि कैसे वह आपकी कीर्ति सुनकर ईर्ष्या से भर गया और कहने लगा कि अगर तेरा गुरु इतना करामाती पुरुष है तो वह पानी क्यों नहीं मंगवा लेता तो ये सुनकर सतगुरु मुस्कुरा पड़े और उन्होंने भाई मर्दाना जी को कहा कि उसके मन में बड़ा अहंकार है वह किसी और की कीर्ति बर्दाश्त नहीं कर सकता तो सतगुरु नानक ने भाई मरदाना को फिर उसके पास जाकर पानी की मांग करने के लिए कहा और दीन होकर पानी की मांग करने की बिनती करने के लिए कहा तो जब भाई मरदाना जी फिर वली कंधारी के पास गए और वहां जाकर कहने लगे कि किसी को पानी देना बहुत बड़ा पुण्य है यहां पर कहीं भी पानी दिखाई नहीं देता तो आप मुझे पानी देकर मेरी प्यास को तृप्त करें तो भाई मरदाना की यह बात सुनकर वली कंधारी बहुत गुस्से में आ गया और उसने भाई मरदाना जी को वापस जाने के लिए कहा और कहने लगा कि मैं तुझे पानी नहीं दूंगा तू जहां आकर करामातों की बातें करता है और पीने के लिए तेरे पास पानी नहीं है तो भाई मरदाना जी वापिस सतगुरु के पास आ गए और कहने लगे कि वह पानी नहीं दे रहा है और वापस जाने के लिए कह रहा है तो साध संगत जी सतगुरु तो जानी जान थे वह वली कंधारी की सारी खामी जानते थे तो सतगुरु नानक के हाथ में एक लकड़ी थी जिसे सतगुरु ने पहाड़ पर मारा और जैसे ही सतगुरु ने उस लकड़ी को पहाड़ पर मारा वहां से ठंडा निर्मल पानी निकल पड़ा पानी का विशाल प्रवाह वहां से बहने लगा साध संगत जी वली कंधारी के कुंड में जितना भी पानी था वह पहाड़ की जड़ों में चला गया और खुशक हो गया तो वली कंधारी ने ध्यान लगाकर देखा वह सतगुरु की करामात को जान गया था और उसने ईर्ष्या में आकर एक भारी पत्थर पहाड़ से नीचे की तरफ गिराकर गुरुजी पर वार किया तो वह पत्थर पहाड़ से नीचे आता हुआ वृक्षों को तोड़ता हुआ जल को रोकने के लिए बहुत जोर से आया और बादलों के गूंजने जैसी आवाज हुई करामात से करामात टक्कर खाती दिखी, वह बड़ा पत्थर सद्गुरु द्वारा प्रवाह किए हुए जल को रोकने के लिए आया, तो पत्थर को नीचे आता देख सतगुरु ने अपना हाथ उस पत्थर के आगे कर दिया और पत्थर को रोक दिया और सतगुरु सहज स्वभाव से बैठे रहे तो ये देखकर वली कंधारी और ईर्षा से भर गया और उसने अपनी करामाते दिखानी शुरू की और पत्थर को आगे करने की पुरजोर कोशिश की लेकिन सतगुरु का हाथ वज्र की तरह उस पत्थर में घुस गया और यह दृश्य वली कंधारी ने देखा और उसने अपनी शक्ति को सतगुरु नानक के सामने छोटा पाया वह पानी को रोक ना सका और पानी  तेज़ प्रवाह से चलता रहा साध संगत जी वह स्थान आज तक जगत में मशहूर है गुरु जी के हाथ का पंजा उस पत्थर पर साफ दिखाई देता है उसको मिटाने के बहुत प्रयत्न किए जा चुके हैं लेकिन वह चिन्ह उसी तरह मौजूद है दुनिया हार गई है उस पवित्र स्थान को जो कि आज पाकिस्तान में है जिसको गुरुद्वारा पंजा साहिब जी के नाम से जाना जाता है लाखों की गिनती में संगत वहां पर गुरुद्वारा साहिब जी के दर्शन करने जाती है और अपनी मनोकामनाएं पूरी करने जाती है वहां पर आज भी जल प्रवाह चल रहा है सतगुरु नानक की ये लीला देख वली कंधारी सतगुरु नानक के चरणों पर गिर पड़ा और वंदना करने लगा और कहने लगा कि हे प्रभु जी ! मेरी भूल को क्षमा करें मुझे बख्श दे ! मैंने आपके जैसा महात्मा नहीं देखा आप परलोक में मेरे सहायक होंगे इस तरह का मुझे वचन दे और उसने सतगुरु के आगे बहुत विनती की और सतगुरु नानक को एक पूर्ण महात्मा जाना तो सतगुरु नानक ने वहां पर उस को उपदेश दिया की सदा ही खुदा की बंदगी करो उसके नाम का सिमरन करो और इस मनुष्य शरीर को सफल करो इस तरह वली कंधारी ने सतगुरु नानक को अपना पीर माना और उनके उपदेश पर चलकर जीवन व्यतीत करना शुरू किया और मुक्ति प्राप्त की साध संगत जी वली कंधारी तो वहीं पर रहा लेकिन सतगुरु नानक उसका उद्धार कर आगे चले गए ।

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By Sant Vachan


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